कब तक झेलोगे 'साहब'
झुल्म से भरे शतरंज के बने हम जब से प्यादे
इस्तेमाल ही किये जा रहे तबसे हम किसी ना किसी से,
गम नही हमे झीन्दगी से कूच खो जानेका
जब कि हमारी मंझील ही आज के दिन कि रोटी है...
झुल्म से भरे शतरंज के बने हम जबसे प्यादे
याद ही नही हमे कब आखरी हमने सोच लगायी थी
जिते जा रहे है दुसरे के इशारो पे
इशारा ठीक या गलत येह सोच्नेका हमे वक़्त कहां...
झुल्म से भरे शतरंज के बने हम जबसे प्यादे
पता ही नही हमे झीन्दगी क्या होती है
आज का दिन गुझरा यही हमारे लिये ठीक
कल साला किसने है देखा....
झुल्म से भरे शतरंज ने बनाया हमे अंधा
खिलाये वही भगवान और मुबारक उनको हमरा श्रमदान
श्रम कितने किये इसका हिसाब कहां
जब मुर्गी ने किया हो कसाई पर भरोसा
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